प्रोफेसर खेरा की असमय मौत हमसे सवाल करते हैं?

उनकी मौत नैसर्गिक नहीं साजिशन थी?

सुशान्त कुमार

 

चार साल गुजरने के बाद भी ना जाने क्यों मृत बूत जिंदे लोगों से पूरी ताकत के साथ सवाल पूछ रहा है कि उनके कामों का क्या होगा? निश्चित ही आज हमें प्रख्यात आदिवासी संरक्षक प्रभुदत्त खेरा के जीवन से जुड़े गुत्थियों को हमें हल करनी चाहिए! 23 सितंबर 2019 को उन्हें मृत घोषित कर दिया गया था। उनके मृत्यु के बाद अचानकमार पहुंचकर यह जाना कि 93 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु की खबर ने अनायास उस दिन क्यों चौंकाया था? उसके बाद जब उनके करीबियों से अपने शंकाओं पर बात की तो चीजें उलझते चली गई? 

एक विद्वान व्यक्ति जो बूढ़ा हो चुका था, क्या सत्ता, जंगल माफिया, ताकतवर सामंती लोग और उनके तथाकथित करीबियों को उनके कामों से एतराज नहीं था? आपको क्या यह नहीं जानना चाहिए कि आखिरकार प्रोफेसर खेरा ने अपना सम्पूर्ण जीवन बैगा आदिवासियों के लिये समर्पित क्यों किया? यहां तक कि जीवनपर्यंत कमाये गये सम्पत्ति, ज्ञान और सघर्ष की एक नई तरीके को वह हमें सौंपना चाहते थे? यह दावे के साथ कह सकते हैं कि उनकी हिंदूविरोधी सोच, आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन, अभयारण्य और उसकी रक्षा, किसी भी हालत में बैगाओं को विस्थापित अथवा बेघर ना करने की उनकी जिद्द के साथ उनकी अनोखी लड़ाई उनका जनसरोकार निश्चित रूप से सत्ता, जंगल माफिया और उनके गुर्गों के लिये एक विशाल मानव दीवार खड़ी करते थे। 

 

 

जब इस पर सोचा-समझा जाता है तब यह प्रथम दृष्टया साधारण घटना नजर नहीं आती है। अंतिम समय में एक स्वस्थ व्यक्ति का अचानक बीमार होना, उनके शरीर में व्याधियों का उभर आना, बेहोशी, बैगा आदिवासियों के बदले कुछ बाहरी लोगों का उनके करीब आ जाना, इलाज और दवा में कोताही, उनके अंतिम संस्कार को हिन्दू रीतिरिवाज से करना, उनके चाहने वाले विद्यार्थियों को उनके करीब ना फटकने देना और साढ़े तीन दशकों तक उनके कामों का सही विश्लेषण ना करना, उभरते अंतरविरोधों को स्वीकार नहीं करना जैसी स्थितियां उनकी मौत को स्वाभाविक मौत नहीं बनने देता है।

ऐसा क्यों कर लगता है कि उनका आदिवासियों के लिये समर्पण और बैगाओं के लिये काम को अपनी अंतिम सांस तक नहीं छोडऩा उन्हें मौत के करीब ला खड़ा किया है? इसके अलावा बीमारी की अवस्था में उनके सारे फैसले उनके करीबी बैगा आदिवासी नहीं बल्कि गैर आदिवासी लेते थे? उन्होंने अपने द्वारा दिये गये साक्षात्कार में उन बाहरी ताकतों की ओर इंगित करते नजर आते हैं?

 

 

पूर्व प्रोफेसर डॉ. पीडी खेरा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के अचानकमार टाईगर रिजर्व के वनग्राम लमनी-छपरवा में आदिवासी, प्राकृतिक हालातों और उनके खिलाफ साजिशों का विरोध ताउम्र करते रहे। खेरा का 23 सितम्बर 2019 को बिलासपुर के अपोलो अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद 93 वर्ष के आयु में निधन हो गया था। बताया गया कि उम्र संबंधी जटिलताओं के कारण अपोलो अस्पताल में खेरा का इलाज चल रहा था।

उनका जन्म 13 अप्रैल 1928 को पाकिस्तान के लाहौर शहर में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा झंग पंजाब में हुई। इसके बाद वो 1948-49 को दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने बीए की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद एमए गणित और मनोविज्ञान से किया। 1971 में दिल्ली विश्वविद्यालय से ही पीएचडी पूरी की। इसके बाद हिन्दू कॉलेज दिल्ली में रीडर की नौकरी कर ली। कहा यह जाना चाहिये कि पिछले साढ़े तीन दशकों से बिलासपुर जिले के अचानकमार टाइगर रिजर्व (एटीआर) के एक गांव में आदिवासियों की सेवा करते हुये जान न्योछावर कर दिये और सरकार उनके कामों से मुंह फेर ली।

 

 

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ट्वीटर पर ट्वीट करते हुए कहा था कि प्रोफेसर खेरा बलिदान का जीता-जागता उदाहरण थे, गरीबों के लिए निस्वार्थ सेवा और समर्पित कार्य, बघेल ने कहा था कि उन्होंने एटीआर के अंदर लमनी गांव में एक झोपड़ी का निर्माण 30 साल से अधिक समय पहले किया था, वहां बस गए और आदिवासी बच्चों को मुफ्त में पढ़ाया। जनवरी 2019 में बघेल ने अस्पताल में बीमार प्रोफेसर से मुलाकात की और उन्हें नई दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में स्थानांतरित करने का सुझाव दिया लेकिन गैर-राजनेताओं ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि वह उन लोगों के साथ रहना पसंद करेंगे, जिनके साथ वह रह रहे थे?

उनका अंतिम संस्कार मंगलवार 24 सिंतबर 2019 को सुबह 11 बजे मुंगेली जिले के वनग्राम लमनी में किया गया। लमनी, छपरवा व आसपास के वनग्राम उनकी कर्मस्थली रही है। घने जंगलों के बीच बसे वनवासियों और बैगा आदिवासियों के बीच प्रोफेसर खेरा ‘दिल्ली वाले बाबा’ के नाम से जाने जाते थे।अचानकमार अभ्यारण्य में डॉ. प्रभुदत्त खेरा मिट्टी से बने घर में तीन दशकों से रह रहे थे। वे राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र बैगा आदिवासियों के बीच शिक्षा का उजियारा फैलाकर उन्हें जीने की राह दिखाने का काम अनवरत करते रहे।

 

 

इससे बढक़र जोखिम उनके जीवन के लिये और क्या हो सकता है। इसके लिए वे न तो सरकारी मदद ही ली और न ही किसी के पास झोली फैलाई। पेंशन की राशि से आदिवासियों का जीवन सुधारने का काम अनवरत बिना रूके करते रहे। डॉ. खेरा वर्ष 1983 में दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थिया का एक दल लेकर छत्तीसगढ़ स्थित अचानकमार के घने जंगलों में एक टूर लेकर आए थे। उद्देश्य था आदिवासियों के रहन-सहन व सामाजिक परिवेश को करीब से देखना। अध्ययन के बाद आदिवासियों के जीवन स्तर को सुधारने के संबंध में केंद्र सरकार को रिपोर्ट पेश करना था।

प्रो.खेरा की जिंदादिली और वनवासियों के बीच रहकर किए जा रहे कार्य से राज्य सरकार भी प्रभावित थी। साल 2018 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ पर दो अक्टूबर को राजधानी रायपुर में छत्तीसगढ़ के प्रथम गांधी स्मृति सम्मान से प्रोफेसर खेरा को सम्मानित किया गया था। इस सम्मान में उन्हें 5 लाख रुपये नकद पुरस्कार दिये गये थे। इससे पहले 2012 में, बिलासपुर के संदीपनी एजुकेशन सोसाइटी ने ‘धरोहर सम्मान’ के साथ खेरा को सम्मानित किया था।

2008 में लमनी गांव से लगभग 18 किमी दूर छपरवा में आदिवासी बच्चों के लिए एक स्कूल खोलने के लिए राज्य के वन विभाग द्वारा आमंत्रित किया गया था। तब से खेरा बच्चों को पढ़ाने के लिए सप्ताह में छह दिन स्कूल जाते थे। यही नहीं, तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने प्रो. खेरा द्वारा छपरवा में संचालित स्कूल के शासकीयकरण की घोषणा भी तब की थी। प्रोफेसर चिकित्सा विज्ञान के जानकार बैगा जनजातियों के सच्चे हमदर्द रहे, उनको समय पर आधुनिक चिकित्सा की सुविधा भी उपलब्ध कराते थे। हाट बाजार की अन्नदूत सेवा से जोडऩे सूत्रधार बनते और जंगल के संरक्षक बने रहे।

 

 

बैगा और गोंड़ जनजाति के बीच साक्षरता के साथ स्वास्थ्य इंडेक्स मृतप्राय थी। डॉ. खेरा ने जंगल विभाग के सहयोग से छपरवा को अपना केन्द्र बनाया। घुमक्कड़ और अलहदे बैगा समाज के बच्चों के बीच उन्होंने जगजागरण अभियान चलाया। देश विदेश के साथ स्थानीय मध्यप्रदेश सरकार ने उनके अभियान को जमकर सहयोग किया। इसके पहले डॉ. खेरा ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इस्तीफा देकर दिल्ली को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। आदिवासी खासकर गोंड़ और बैगा समाज के बच्चों के जीवन में शिक्षा की उजियारे लाने अपने जीवन को प्रयोगशाला बना दिया।

प्रोफेसर खेरा अचानकमार क्षेत्र के घनघोर जंगल में रहने वाले आदिवासी समाज को अपना परिवार बनाया। जनजातीय बच्चों को बदहाल गंदगी से बाहर निकालने का भगीरथ प्रयास किया। स्वास्थ्य के मायने समझाया। बैगा और गोड़ों के बच्चों को नहलाने, नाखून काटने उनके कपड़े सिलने, मच्छरों से बचाव करने, बच्चों को चाकलेट, बिस्किट, भूजिया, पोष्टिक दलिया देकर शिक्षा के साथ जोड़ा। मृत्यु के एक साल पहले उन्होंने जनवरी में  झाडू और सफाई के महत्व से ग्रामीणों को जोड़ा था।

स्कूल खोलकर बच्चों को खुद पढ़ाना शुरू कर दिया। प्रत्येक कक्षाओं में जाकर अंगे्रजी को पढ़ाना उनकी पहली प्राथमिकता रहती थी। धीरे-धीरे आज उनके पढ़ाए बच्चे बड़े-बड़े ओहदों पर काम कर रहे हैं। निधन से पहले भी प्रोफेसर खेरा अपने अभियान को लगातार गतिमान बनाये रखा।1 जनवरी 2019 को जब प्रोफेसर बीमार पड़ गये थे तो स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अस्पताल में मुलाकात की और डाक्टरों से उनका हालचाल जाना।

 

 

मुलाकात के दौरान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बताया गया कि प्रोफेसर खेरा द्वारा बैगा आदिवासियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए मुंगेली जिले के ग्राम छपरवा में स्कूल संचालित किया जा रहा है जिसके लिए पूर्व में 20 लाख रूपए की राशि राज्य शासन द्वारा स्वीकृत की गई थी, लेकिन वह राशि अब तक प्राप्त नहीं हुई है। मुख्यमंत्री ने इसे बेहद गंभीरता से लिया और अधिकारियों को तत्काल स्वीकृत राशि खेरा की संस्था को उपलब्ध कराने के निर्देश दिए।

उनके निर्देश पर जिला पंचायत मुंगेली द्वारा खेरा को 20 लाख रूपए का चेक प्रदान कर दिया गया था। खेरा ने इसके लिए मुख्यमंत्री के प्रति आभार व्यक्त किया था और उन्हें छपरवा आने का न्यौता भी दिया था। लगभग साल 1960 में प्रख्यात मानव शास्त्री एल्विन ने भी बैगा जनजाति पर शोध किया था। प्रो.खेरा का कहना था कि उन्हें बैगाओं की नित नई समस्याओं से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वे कोई किताब लिख सकें। उनकी किताब ‘फ्यूचर ऑफ प्रिमिटिव ट्राइब्स’ पर जानकारी हम तक आना बाकी है। खेरा कहते थे कि जब मैं इन लोगों के बीच आकर बसा तो लोगों और सरकार के नुमाइन्दों ने मुझे माओवादी समझ लिया और जांच तक करा डाली।

 

 

बाद में मेरा सेवाभाव देखकर समझ में आया कि यह तो पागल प्रोफेसर है जो अपना जीवन बर्बाद करने इन लोगों के बीच आया है। लेकिन वास्तव में किन परिस्थितियों में खेरा की मौत हुई उस पर स्वतंत्र एजेंसी से कोई जांच क्यों कर नहीं आया यह सवाल खड़ा करता है? कहते हैं कि 33 साल बाद खेरा की ही मेहनत से बैगा जनजाति के बच्चे 12वीं तक पढ़ रहे हैं और उनके बच्चों को विधान सभा जाकर वहां की गतिविधि जानने के लिये मौका प्रदान किया।

स्थानीय आदिवासी बताते हैं कि उनके पढ़ाये युवा शहर जाकर रोजग़ार तलाश रहे हैं और इनकी जीवनशैली में काफी बदलाव आया है। प्रो. खेरा का कहना था कि सरकार बैगाओं को संरक्षित जनजाति का दर्जा देकर भूल गई है और जितनी योजनाएं और घोषणाएं होती हैं उसके अनुसार काम नहीं होता। प्रो.खेरा के सेवा भाव का पागलपन कुछ ऐसा था कि वे अपनी पेंशन का अधिकांश हिस्सा इन बैगा बच्चों पर खर्च कर देते थे। 

प्रोफेसर खेरा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने दिनों के बारे में कहते थे कि वह हर साल छात्रों के एक बैच को भारत में एक जगह ले जाते थे, अंतिम बार मध्यप्रदेश के उस स्थान से शायद फिर कभी अपने चमकते जीवन में वापस नहीं लौटे। उन्होंने कभी शादी नहीं की और अपनी सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अपने भविष्य के बारे में बहुत सोचा और अंतत: 1983 में लमनी में आदिवासी जीवन को बचाने, उसके व्यवसायीकरण को होने से रोकने, उनकी प्राकृतिक ज्ञान के खजाने को समृद्ध करने और विस्थापन से बचाये रखने विपरित परिस्थितियों में भी जुटे रहे।

 

 

वे आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने के तरीकों पर कहते थे कि पहले वे बच्चों को कागज, पेंसिल और रंग प्रदान करते थे और उन्हें अपनी पसंद की किसी भी चीज को चित्रकारी करने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। और बच्चे चित्रकारी बना लेते तो उन्हें चॉकलेट और बिस्किट उपहार में देते थे। बताया जाता है कि छपरवा स्कूल अब स्थानीय वन समितियों के योगदान से चलता है, जिसमें पाच शिक्षक लगभग 100 विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं। जब भी स्कूल वित्तीय संकट का सामना करता था, खेरा अपनी पेंशन से धन का योगदान कर दिया करते थे।

अब देखना बाकी है कि क्या स्कूल बैगा आदिवासियों के सहकारिता और  नेतृत्व से आगे चल सकेगा? क्या मुख्यमंत्री भूपेश के द्वारा दिया गया 20 लाख का रकम इस स्कूल के नवनिर्माण में खर्च हो सकेंगे? और यह भी क्या यह क्षेत्र पांचवी अनुसूची की तरह संचालित होंगे इत्यादि इत्यादि...

प्रोफेसर खेरा कहा करते थे कि उन्होंने स्थानीय रूप से उपलब्ध प्रतिभा और भुगतान किए गए लाभांश से शिक्षकों का चयन करते थे। वे सुबह 8:30 बजे स्कूल चले जाते थे और दोपहर में 3:30 बजे अपनी झोपड़ी में लौट आते थे। लमनी में वापस आने के बाद वे चुप नहीं बैठते थे बल्कि शाम 5 से 7 बजे के बीच आदिवासी बच्चों के साथ समय बिताते थे। स्थानीय आदिवासी उन्हें दैनिक जरूरतों के लिए पानी लाने में मदद करते थे और वे स्वयं खाना बनाते थे।

 

 

90 वर्ष को पूरा करने के बावजूद प्रोफेसर शारीरिक रूप से फिट थे और रोजाना बहुत चलते थे। आश्चर्य तब होता है कि उन्हें चश्मे की जरूरत नहीं थी और ना ही कभी बीमार पड़ते थे। फिर अचानक उन्हें ऐसी कौन सी बीमारी ने आ घेरी कि हम और पूरा सरकारी अमला प्रतिबद्ध प्रोफेसर को बचा नहीं पाये? क्या उनकी बीमारी से जुड़ी मेडिकल रिपोर्ट्स अब लोकहित में प्रकाशित नहीं होनी चाहिए?

21 नवम्बर 2008 को कमल दुबे ने उन पर एक यूट्यूब वीडियो बनाया था। जिसमें उनकी सोच समझ उन्हें स्वयंस्फूर्त विवादों के घेरे में ले आता है, जिसमें खेरा कहते हैं कि बैगा आदिवासियों का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, अगर इनको ढोकर ना लाया जाए तो ये वोट डालने कभी न आयें। जिन गावों में ये बहुसंख्य हैं वहां भी सरपंच गैर आदिवासी है! इनको तो बस जंगल में रहने कि आज़ादी चाहिये, ये तो खेती भी नहीं करना चाहते, स्टेट तो इनके रहन सहन में बाधा डालता है, इनकी संस्कृति को सहेजने के बजाय बदलने में लगा है।

 

 

आफ्रीका की तर्ज पर कहा जा सकता है कि ये स्टेटलेश सोसायटी हैं। कठिन से कठिन स्थिति में भी ये किसी से कुछ मांगे बिना अपना गुजारा कर लेते हैं। शराब इनके लिये पवित्र पानी है, हां कुछ लोग कभी-कभी ज्यादा पी लेते हैं लेकिन पीने के बाद भी मेहनत में कमी नहीं करते। हमें इनसे बहुत कुछ सीखना है, इनका जंगल का ज्ञान गजब का है, इनके घर आपस में कभी जुड़े नहीं रहते, समाज में रहते हुए भी अलग रहना व अलग रहते हुए भी समूह में रहना, इनकी लाजवाब जीवन शैली है?

वे दावे के साथ कहते थे कि बैगाओं की विशेषता यह है कि उनमें से किसी को भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या नहीं है और वे बहुत साहसी लोग होते हैं। वे कहते थे कि दो प्रकार के ट्राइब्स होते हैं एक हिंदूवादी और दूसरा प्रिमिटिव गु्रप। प्रिमिटिव पिछड़े जनजातीय हैं। इन्हें खेती से प्यार नहीं है ये जंगल से रिश्ता रखते हैं। पैसों की जरूरत नहीं राजनीतिक में आना नहीं चाहते हैं। जंगल में घूमने के लिये खुली छूट दे दी जाये तो इसी से खुश हैं। जंगल में रहने घूमने में खुश हैं। ये वोट देते नहीं हैं बल्कि इनसे वोट दिलवाया जाता है।

 

 

राजनीति में आने की जरूरत नहीं है। इनकी संख्या ज्यादा होने के बाद भी इनके लोग सरपंच नहीं होते हैं। ये वाकई राजनीतिक के दायरे से बाहर हैं। वे चाहते हैं कि स्टेट उनके कामकाज में दखल ना दे। ये इनकी अपनी सभ्यता है सबसे जीवंत सभ्यता कह सकते हैं। जिस मॉडर्न एजुकेशन की हम बात करते हैं इससे इनके कपड़े बदल गये हैं विचारधारा नहीं बदली। राज करना भी नहीं चाहते और राजनीति भी नहीं चाहते। पंच-सरपंच दूसरे लोग हैं।

प्रोफेसर पूरी ब्राह्मणी व्यवस्था को घेरते हुये कहते हैं कि मैकल पर्वत श्रेणियों में 5 लाख से ज्यादा बैगा जनजाति के लोग निवास करते हैं। आज भी विधानसभा में कोई बैगा चुनकर नहीं आते हैं यदि उस समय परिसीमन के दौरान एक विधानसभा बैगाओं के लिये बना देते तो एक बैगा अवश्य चुनकर आता। सरकार भी अपने दायरे से बैगा को लाते नहीं जो पूरी तौर पर राजनीति से बाहर हैं। जो इन्हें पढ़ाने भी आते हैं तो उन्हें इनका इतिहास ही मालूम नहीं। खेरा कहते हैं कि जब 1900 ईस्वी में देश में अकाल पड़ा था उस वक्त बैगा जनजाति भूखे रह गये लेकिन सरकार से कुछ नहीं मांगा। सरकार ने अपने नुमाइंदों से पूछा कि ‘इनकी सूध क्यों नहीं ली’ तो बोले ‘भूल गये।’ जब बैगाओं से पूछा गया कि ‘आपने सहयोग क्यों नहीं लिया’ तो बोले ‘कोई पूछा ही नहीं।’

 

 

प्रोफेसर कहते थे कि कठिनाइयों में भी यह आदिवासी सरकार से सहयोग नहीं लेते हैं ये केवल आजादी मांगते है वह भी जंगल में घूमने की और रहने की आजादी। किसी ने इन पर आज तक पुस्तक तथा लेख लिखा ही नहीं। इनकी जीवन अलहदा है ये हर वक्त खुश रहना जानते हैं। इनकी संस्कृति में मुद्रा की कोई कीमत नहीं है। ये बिना मुद्रा के रहना जानते हैं। यह इनसे सीखनी चाहिये। जंगल के लिये इनका ज्ञान व्यापक है। अपनी आजादी को इन लोगों ने अपने ज्ञानवर्धन में लगाया है। हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिये इनकी ‘अनेकता में एकता’ को नहीं तोडऩी चाहिए। ये जंगल को दोहन नहीं करते हैं। पेड़ नहीं काटते, जानवरों को मारते नहीं हैं। सरकार इन पर कठोरता ज्यादा बरतती है।

विश्वविद्यालय में जब जाते हैं तो इनके संबंध में बताते हैं। व्यवस्था है कि इन लोगों को तोडक़र अपने साथ मिलाना चाहती है। सरकार को इनकी सहायता करनी चाहिये। ये आदिवासी कुछ नहीं मांगते। इनका सारा परिवार एक झोपड़ी में रह लेता है। बांस का घर बनाते हैं एक छोटी बाड़ी उसके साथ बना लेते हैं। जबकि आधुनिक गांव में एक मकान दूसरे से जुड़ा होता है। इस तरह शहरी रहवास से अलग बहुत दूर-दूर होते हैं। 

 

 

प्रोफेसर के मौत का एक और कारण अचानकमार अभयारण्य की सघन घने वन सम्पदा और उसकी रक्षा को भी कहा जा सकता है। इस तरह का वन पूरे देश में पहाड़ों और नदियों के साथ अभेद्य जंगलों से युक्त विरले ही कहीं पाया जाता हो। यह अभयारण्य छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध अभयारण्यों में से एक है। यहां तेंदुआ, बंगाल टाइगर, जंगली भैंसों, ब्लेक पैंथर जैसे असंख्य लुप्तप्राय प्रजातियां रहती हैं। अन्य जानवरों में चीतल, धारीदार लकड़बग्घा, कैनीस, आलस भालू, ढोले, सांभर हिरण, नील गाय, भारतीय चार सींग वाले मृग और चिंकारा भी शामिल हैं।

1975 में स्थापित अचनकमार एक टाइगर रिजर्व भी है। सतपुड़ा के 557.55 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला यह जंगल वन्य जीवन की विविधता को संजाये हुए है। यह बिलासपुर से 55 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर पश्चिम में स्थित है। मानसून के मौसम में यहां पर्यटकों का प्रवेश वर्जित कर दिया जाता है। यह कान्हा-अचानकमार कॉरिडोर है, जो मध्यप्रदेश के टाइगर रिजर्व को जोड़ता है। पूरे जंगल में साल, साजा, बीजा और बांस के पेड़ भारी संख्या में पाये जाते हैं। घोंगापानी जलाशय अभयारण्य के रास्ते पर स्थित एक बांध है। दिन में बांध का दृश्य मोहक लगता है। वन्यजीव अभयारण्य अचनकमार, केंवची और लमनी के आगे सरकारी अतिथि गृह भी है।

 

 

अचानकमार को साल 2005 में देश का 14वां बायोस्फियर रिजर्व घोषित किया गया। इसे साल 2009 से टाइगर रिजर्व एवं 2006 से प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल किया गया। अचानकमार के बीचोंबीच में मनियारी नदी बहती है। यहां सर्वाधिक मात्रा में बाघ पाया जाता है। जागरण 19 अगस्त 2019 को लिखता है कि बिलासपुर शहर का यह मुख्य आकर्षण का केंद्र है -'अचानकमार टाइगर रिजर्व।' ट्रेन से जाना चाहें तो यह अभ्यारण्य बिलासपुर रेलवे स्टेशन से 80 किलोमीटर की दूरी पर है। सडक़ से जाना चाहें तो यह जिला मुख्यालय मुंगेली से 45 किमी दूर उत्तर पश्चिम में विकासखंड मुख्यालय लोरमी में स्थित है।

यहां प्रवेश करते ही किसी अन्य दुनिया में होने का अहसास होता है। कुदरत के नैसर्गिक सौंदर्य में सुकून तलाशने भी आप यहां आ सकते हैं। मैकाल श्रेणी के विशाल पहाडिय़ों के बीच बांस, सागौन और अन्य वनस्पतियां यहां मनभावन दृश्य पैदा करती है। इस अभ्यारण्य की स्थापना 1975 में वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट - 1972 के तहत की गई है।

प्रोफेसर ने जिस सम्पत्ति को हमें सौंपा है उसकी रक्षा के लिये हमें सोचना चाहिये? 25 सितम्बर 2019 को पत्रिका लिखता है कि खेरा ने अपनी पूरी संपत्ति सभी आदिवासी बैगा बच्चों के नाम कर दी है। इसमें उनका संचित धन 42 लाख रुपये, उनका पूरा पेंशन, उनको मिले पुरस्कार की राशि आदि शामिल हैं। पत्रिका के अनुसार प्रोफेसर खेरा के एक मित्र हैं दिल्ली के प्रोफेसर मारवाह, उन्होंने बताया कि -खेरा जब एक बार दिल्ली गए तो उनका एक सहयोगी उन्हें खेड़ा खुर्द गांव ले गया। वो गांव खेरा को काफी पसंद आया।

 

 

तो सहयोगी ने कहा आप यहीं क्यों नहीं रह जाते हैं, जमीन मैं दे देता हूं। इसके बाद खेरा ने वहां पर एक घर बनवाया। अंतिम दिनों में जब अस्पताल में खेरा से मिलने प्रोफेसर मारवाह आए तो उन्होंने खेरा से पूछा कि उस घर का क्या करना है, पहले तो प्रोफेसर खेरा को याद नहीं आया इसके बाद याद कर उन्होंने कहा कि जमीन तो मेरी नहीं थी, जिसकी जमीन है वो घर उसको ही दे दो। 

टाईम्स ऑफ इंडिया लिखता है कि जीवन के लिए स्नातक होने के अपने फैसले पर, प्रोफेसर खेरा ने कहा था कि प्रभावी रूप से किसी प्रकार की समाज सेवा के लिए व्यक्ति को बहुत त्याग करना पड़ता है और एक सामाजिक व्यक्ति होने के नाते वह अब तक जो कुछ भी कर रहा है वह परिवार में रह कर नहीं कर सकता था। प्रोफेसर खेरा का कहना था कि सरकार के पास बैगाओं के लिये प्राथमिक से उच्च शिक्षा के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं और इसके बजाय विकास के नाम पर भौतिकवादी एजेंडे का पालन कर रही है।

जैसे-जैसे हम खेरा को समझना शुरू करते हैं उनकी मौत हमें भयावह नजर आती है। टाईम्स ऑफ इंडिया लिखता है कि लगभग तीन से चार साल पहले उन्होंने एसईसीएल को स्कूल में एक पुस्तकालय स्थापित करने के लिए लिखा था, जिसके लिए 15 लाख रुपये की राशि मंजूर की गई थी और जिला प्रशासन को आवंटित की गई थी, लेकिन उस राशि का उपयोग करने में संस्था विफल रही।

समय के साथ उनकी प्रसिद्धि देश विदेश में बढ़ती जा रही थी। वर्ष 2012 में बिलासपुर के संदीपनी एजुकेशन सोसाइटी ने प्रोफेसर खेरा को ‘धरोहर सम्मान’ से सम्मानित किया था। समाज के अटल श्रीवास्तव के अनुसार उनसे पुरस्कार स्वीकार करने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया था और वह बहुत अनिच्छा से इसके लिए सहमत हो पाये थे।

प्रोफेसर खेरा आदिवासी बच्चों की कल्पना और ज्ञान पर चकित रहते थे और उनका कार्य इससे भी ज्यादा चौंकाता था कि बेसिक शिक्षा के दौरान जनजातीय बच्चों का कागजात पर उनके चित्र के रूप में उनका ज्ञान हमारे शिक्षा पद्धिति से भी ऊंचा था। वे वनस्पतियों, जीवों और उनके नामों (स्थानीय) की इतनी किस्मों को जानते हैं कि यह शहरों के किसी भी व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर सकता है। 24 जून को उनके झोपड़ी से उनके सामानों को निकाल बाहर कर रेस्ट हाउस में रख दिया गया है।

 

 

स्थानीय आदिवासियों ने बताया कि कोई दो बोरा सिर्फ पुस्तक ही नकले। झोपड़ी को खर पतवाड़ ने अपने कब्जे में ले लिया है। उसके बरामदे में नींबू का पेड़ फल के बोझ से जमीन की ओर झूक गया है मानो प्रोफेसर का इंतजार कर रहे हो। वहीं बरामदे में समानों को रखने की दानी प्रोफेसर के द्वारा सामानों को रखे जाने का बाट जोह रही है। 

सरकार को अपने योजनाओं और तरीकों के इतर ऐसे जनजातीय पुरोधाओं को जो अपने जीवन को ही जनजातियों के जीवन का हिस्सा या रिसर्च समझते थे को ही जानजातीय विकास का योजना में रीढ़ क्यों नहीं बना सके? जबकि एक अकेला व्यक्ति आदिवासी रिसर्च के माध्यम से जीवंत आदिवासियों के जीवन में बदलाव में कामयाब रहा तो आखिरकार सराकर से कहां चूक हुई और ऐसे प्रतिभा के जीवन के साथ हम लगातार खेलते कैसे रहे? बहरहाल उनकी असमय मृत्यु आदिवासी हितचिंतकों के लिये किसी बड़े क्षति से कम नहीं है। प्रोफेसर खेरा की मौत ना जाने क्यों कई सारे गुत्थियों को सुलझाने की कवायद हमारे समक्ष छोड़ गई है? 

पत्रकार प्रफुल्ल ठाकुर का यह कहना बड़ा मौजूं है - उनका झोपड़ी नुमा घर टूट कर गिर रहा है। सामने लगी मूर्ति का पेंट उखड़ गया है। उनके निधन के बाद उनके सामान और किताबों को कुछ बोरों में भरकर लमनी गेस्ट हाउस के पास एक जर्जर कमरे में रख दिया गया है, जो धूलों से अटा पड़ा है। हम उनके समान, उनकी किताबों तक को सुरक्षित नहीं रख पाए, संरक्षित नहीं कर पाए। कल के दिन में बताने के लिए केवल कहानी होगी, दिखाने के लिए कुछ भी नहीं। 

मुझे क्यों कर लगता है कि उनकी मौत नैसर्गिक नहीं साजिशन थी? आइए इसका पता लगाएं। 


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  • 26/09/2023 गिरीश पंकज

    बहुत सही लिखा।

    Reply on 26/09/2023
    शुक्रिया भैया
  • 23/09/2023 यशपाल

    प्रोफेसर खैरा के स्मृति भवन बनाया जाय, सरकार से मांग करे। आदिवासी समाज को आगे आना पड़ेगा।

    Reply on 26/09/2023
    शुक्रिया भैया