चुनाव सुधार की चिंता : इंदिरा गांधी जैसी उतावली ठीक नहीं

'वन नेशन वन इलेक्शन'

प्रेमकुमार मणि

 

समाज, राजनीति, कला-साहित्य, सोच-विचार यानि जीवन के सभी आयाम में सतत सुधार होते रहने चाहिए। स्वयं प्रकृति प्रणव चरित्र की होती है। हर क्षण बदलती होती है। ऐसे में विचार के स्तर पर मैं चुनाव सुधारों का समर्थक हूँ।

ये सुधार होते भी रहे हैं। मैं बिहार से आता हूँ, जहाँ बोगस मतदान और बूथ कैप्चर करना एक ऐसी व्याधि थी, जिससे लोग तबाह थे। चुनाव बिना गोली-बन्दूक-कट्टे के जीते नहीं जा सकते थे। हर चुनाव में गुंडों की पूछ बढ़ जाती थी। धीरे-धीरे ये गुंडे सीधे धारा सभाओं में चुन कर पहुँचने लगे। लेकिन, टी एन शेषन और केजे राव जैसे अधिकारियों ने इसे बिना किसी समिति और सुझाव के जड़-मूल से ख़त्म कर दिया।

राव 2005 के बिहार चुनाव में आब्जर्वर थे। इसी चुनाव से बिहार में हिंसा और बूथ- लूट की विदाई हो गई। लेकिन ऐसा नहीं है कि चुनाव में गड़बड़िया अब नहीं होती हैं। अब दूसरे तरह की होती हैं। जब से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रचलन हुआ, तब से लगातार उस पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। निश्चय ही चौकसी तो निरंतर करनी होगी। सुधार भी निरंतर करने होंगे। एक रोज नहा कर आप पूरी जिंदगी स्वच्छ बने नहीं रह सकते।

अभी जो एक देश एक चुनाव का जुमला पढ़ा जा रहा है, वह कोई नई बात नहीं है। सब लोग समझते हैं कि चुनाव लगातार होने से विकास और दूसरे कार्य प्रभावित होते हैं। पंचायत से लेकर लोकसभा के चुनाव होते हैं। शायद ही कोई ऐसा वर्ष होता है जिस में चुनाव नहीं होते। किसी साल तो एक ही वर्ष में कई चुनाव हो जाते हैं। ये चुनाव सरकारी कर्मचारी अधिकारी ही संपन्न कराते हैं।

पुलिस और अर्ध सैन्य बल लगाए जाते हैं। चुनाव अवधि में चुनाव संहिता के अनुसार विकास कार्यों पर रोक लगा दी जाती है। ये सब सामाजिक प्रगति को बाधित करते हैं। इसलिए आवश्यक होगा कि इन्हें ऐसा किया जाय ताकि इसका प्रभाव हमारे विकास कार्यों और सामाजिक स्वास्थ्य पर न पड़े, या कम पड़े। हर चीज की अति ख़राब होती है। लगातार के चुनाव की रोक यदि संभव है, तो होनी चाहिए।

मुझे स्मरण है, 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते थे और ठीक से ही होते थे। केरल के एक अपवाद को छोड़ कर लगभग पूरे देश में कांग्रेस की हुकूमत थी। 1967 में पहली दफा अनेक राज्यों में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत नहीं ला सकी। हालांकि ज्यादातर प्रांतों में तब भी वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में आई थी। वह चाहती तो जोड़-तोड़ की सरकार बना सकती थी। लेकिन उसने अपने को सरकार से अलग रखा।

मुझे स्मरण है हमारे बिहार प्रान्त में 318 सदस्यीय असेंबली में कांग्रेस के 128 सदस्य थे। सरकार बनाने केलिए 160 चाहिए थे। कांग्रेस ने तय किया कि वह सरकार से बाहर रहेगी। ऐसे में अनेक दलों के संयुक्त विधायक दल को सरकार बनाने का अवसर मिला और गैर कांग्रेस सरकार बनी। अनेक राज्यों में ऐसा हुआ। ऐसी सरकारों का अस्थिर होना स्वाभाविक होता है।

तब दल-बदल क़ानून भी नहीं था। चुने हुए विधायक के दल बदल से उनकी मेम्बरी पर कोई असर नहीं पड़ता था। इसी कारण उस दौर में बार-बार सरकारें बदलीं। प्रांतीय सरकारों का गिरना, बर्खास्त होना और फिर राष्ट्रपति शासन और मध्यावधि चुनाव आम बात हो गई। जाने कितनी सरकारें गिरी और बनीं। कितने चुनाव हुए।

लेकिन 1970 में पहली दफा केंद्र सरकार पर राजनीतिक संकट आया। राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की मौत बाथरूम में फिसल कर अचानक से हो गई और राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर कांग्रेस के भीतर कलह शुरू हो गया। इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं। राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने केलिए जब कांग्रेस की बैठक हुई तब इंदिरा ने जगजीवन राम का नाम प्रस्तावित किया।

कांग्रेस के बूढ़े नेता प्रधानमंत्री की तौहीन करना चाहते थे। उन सब ने नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित किया। बहुमत इंदिरा गाँधी के विरुद्ध था। रेड्डी राष्ट्रपति के कांग्रेस उम्मीदवार हुए। अपमानित इंदिरा गांधी ने निर्दलीय वीवी गिरी को समर्थन दिया और वह जीत गए। ऐसे में कांग्रेस दो फांक हो गई। अब लोकसभा में इंदिरा गांधी के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। केंद्र में राष्ट्रपति शासन नहीं लग सकता। नतीजतन लोकसभा भंग हुई और मार्च 1971 में पहली बार केंद्र में मध्यावधि चुनाव हुए।

जो लोग यह दलील दे रहे हैं कि 1967 तक चुनाव साथ-साथ हो रहे थे, वे उस दौर की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का आकलन नहीं कर रहे हैं। वे लोकतान्त्रिक राजनीतिक जीवन का आरंभिक काल था। आज हम जटिल दौर से गुजर रहे हैं। दल-बदल क़ानून भी चुनाव सुधार का ही हिस्सा था। यह भी ठीक है कि इससे आया राम गया राम की बीमारी खत्म हुई। किसी सांसद या विधायक की सदस्यता ख़त्म हो जाएगी यदि उसने दो तिहाई सदस्यों के साथ दल नहीं छोड़ा है।

और भी कई पेचोखम हैं। इसलिए इस क़ानून ने सांसदों - विधायकों की आवाजाही यानि दल-बदल को तो मुश्किल बना दिया, लेकिन लोकतंत्र के लिए कुछ दूसरी बुराइयां भी ला दीं। इस कानून के कारण राजनीतिक दलों के अध्यक्ष सुप्रीमो बन गए और राजनीतिक दलों का आतंरिक जनतंत्र ख़त्म हो गया। एक बीमारी ख़त्म हुई और उससे भी भयावह कई बीमारियां आ गईं।

चुनाव सुधारों पर जब भी बात होती है हमें जयप्रकाश नारायण के प्रतिनिधि वापसी के अधिकार की वकालत और राममनोहर लोहिया के वक्तव्य की जिन्दा कौमें पांच साल इन्तजार नहीं करतीं का भी स्मरण करना चाहिए। इस नजरिये से भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को देखना चाहिए।

क्या 'वन नेशन वन इलेक्शन' की परिणति भी वैसी ही नहीं होगी जैसी दल-बदल विधेयक की हुई थी? मेरी जो समझ है उसके लिए पूरे संवैधानिक ढांचे में बदलाव करना होगा। जैसे धारा 356 का क्या होगा? या छह महीने के भीतर चुनाव करा लेने की संवैधानिक बाध्यता का क्या होगा? इतने बड़े देश में लोकतंत्र को हम लचीले ढंग से ही चला सकते हैं।

प्रांतीय और केंद्रीय धारा सभाओं और सरकारों के गठन को हम शुभ लाभ यानि खर्च की कसौटी पर देखेंगे, तो फिर एक रोज यह तय करना होगा कि छोड़ों चुनावों का सिलसिला। अब एक बार जो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री चुन लिया जाएगा वह पूरी जिंदगी बना रहेगा। उसकी मृत्यु पर ही दूसरा चुनाव होगा। जब नया चुना जाएगा तब नई धारा सभा (लोकसभा और विधानसभा ) भी चुन ली जाएगी। बहुत कम खर्च होगा। यह धन विकास कार्यों पर खर्च होगा।

इसलिए मेरी चिंता है कि आनन - फानन में समिति का गठन और इतना बड़ा फैसला लेना खतरनाक साबित हो सकता है। बेशक चुनाव सुधारों की जरूरत है और वे होने चाहिए। लेकिन इस तरह नहीं कि हमारा लोकतान्त्रिक ढांचा ही खतरे में पड़ जाए। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने संसद का कार्यकाल पांच से बढ़ा कर छह साल कर दिया था। जनता पार्टी की जब सरकार बनी तो इसे दुरुस्त किया गया। इस बार यह चुनाव सुधार भी उसी तरह से आनन-फानन में करने की उतावली दिख रही है। यह ठीक बात नहीं है। जनता को सजग रहना चाहिए।


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