‘जवान’ जैसी फिल्मों के बहाने हिंसा पर लगाम लगाना जरूरी?

मैस्कुलिन, सिनेमैटिक और स्वैगर से भरपूर

सुशान्त कुमार

 

 
जवान एटली द्वारा लिखित और निर्देशित 2023 की भारतीय हिंदी भाषा की एक्शन थ्रिलर फिल्म है। इसमें शाहरुख खान, विजय सेतुपति, नयनतारा, सान्या मल्होत्रा और प्रियामणि के साथ दोहरी भूमिका निभाई है। इस फिल्म में संगीत अनिरुद्ध रविचंदर द्वारा रचित है।

फिल्म की शूटिंग सितंबर 2021 में शुरू हुई और फरवरी 2023 में पुणे, मुंबई, हैदराबाद, चेन्नई और औरंगाबाद में फिल्मांकन के साथ समाप्त हुई। यह 7 सितंबर 2023 को जन्माष्टमी के अवसर पर रिलीज हो चुकी है। जवान बॉलीवुड की तरफ से रिलीज होने वाली पहली पेेन इंडिया फिल्म है।

फिल्म की शुरूआत टोपियों में टांके गए स्टार के विभत्सता को कुचलने से किया गया है। मेरा इशारा आप समझ ही गए होंगे। विक्रम राठौड़ एक पूर्व सैनिक है जो अपने अतीत को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध है, जहां वह देश भर में कुरूतियों के खिलाफ एक श्रृंखला में छह कुशल महिलाओं की एक टीम का नेतृत्व भी करता है और मुंबई मेट्रो को हाईजैक करता है।

विक्रम को पता चलता है कि उसका खोया हुआ बेटा आज़ाद राठौड़ एक ईमानदार पुलिस अधिकारी है, जिसे दुनिया के चौथे सबसे बड़े हथियार डीलर, उसके दुश्मन काली द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। विक्रम काली को ख़त्म करने के मिशन पर निकलता है और सरकार के सामने कुछ मांगें भी रखता है, इस प्रकार एक रोमांचक और बड़े दांव वाले प्रदर्शन के लिए मंच तैयार करता है।

शाहरुख खान की 'जवान' नायक प्रधान मसालेदार फिल्म है। इसमें आपको तकरीबन हर वो एलीमेंट मिलेगा, जो किसी मेनस्ट्रीम एंटरटेनिंग फिल्म में होना चाहिए। हां एक टिकट में दो - दो शाहरुख खान देखने को मिलेंगे। इससे ज़्यादा आम आदमी को क्या चाहिए? 'जवान' को देखते हुए कई मौकों पर ऐसा लगता है कि शाहरुख के बहाने कोई भी काम आम नागरिक अपने असल जीवन में नहीं कर पाते हैं, यानी कोई भी व्यक्ति के लिये वह संभव नहीं वो इस फिल्म में आंतरिक पीड़ा को स्खलित करने का मौका देती है। 

मसलन, देश के आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक मसलों पर खुलकर अपनी बात रखना। देखिए 'जवान' ने व्यवस्था के समानान्तर हिंसा को केन्द्रित करते हुए न्याय करने की व्यवस्था खड़ी करती दिखती है। फिल्म में मसाला इतना कि साधारण व्यक्ति की बौद्धिक गठन टिकट खिडक़ी पर पैसे उड़लने को तैयार है और बदले में पैसा वसूल हो गया कह कर सीटी बजा रहा है।

यही नहीं लोग समीक्षा करने लगे हैं, और सोशल मीडिया में 'स्टार' तोहफा में दे रहे हैं। एटली और शाहरुख खान सोशल मीडिया में हीरो बन गए हैं और उनकी सफलताओं के नए नए चर्चे गढ़े जा रहे हैं। इस तरह की सिनेमा के परिदृश्य ने वास्तविक दुनिया में लोगों को उकसाने के लिये कानून और व्यवस्था को हाथ में लिया है। 

विक्रम राठौड़ का किरदार कुछ कुछ मैस्कुलिन, सिनेमैटिक और स्वैगर से भरपूर लगता है। फिल्म के आखिर में एक सीन है, जहां आज़ाद और विक्रम विलन से लड़ रहे हैं। काली उनके ऊपर शॉटगन से गोली दाग रहा है। ये दोनों लोग एक शील्ड के पीछे छुपे हैं। पहली गोली लगते ही विक्रम और आज़ाद दोनों थोड़ा पीछे की ओर सरकते हैं। इसके अलावा दीपिका पर फिल्माए गए अपने बच्चे पर लादते जिम्मेदारी और फांसी जैसे सीन्स दोबारा देखना चाहूंगा। 

मुझे कोई कहे कितना 'स्टार' दोगे तो मेरा वजूद कानून और व्यवस्था से बंधा हुआ है संविधान से नैतिक रूप से प्रतिबद्ध हूं कि ऐसा कोई भी फिल्म बनाने से पहले वास्तव में हमें सोचना चाहिए कि हम आने वाले जनरेशन को हिंसा, हत्या, तोडफ़ोड़, बदला, अपराध, अपहरण, बालात्कार के माध्यम से व्यवस्था से बदला, भ्रष्टाचार और अपराध को गलत ठहराने न्याय की बात को सच कहने अपराधिक रास्तों का अमल जायज ठहराते हुए गलत विकल्प नहीं सुझा सकते हैं।

आपको मैं यह भी यहां बता दूं कि मैं लोकतंत्र में किसी भी बहाने हिंसा को जायज नहीं ठहरा सकता चाहे वह फिल्मों में खलनायकों के द्वारा हो या फिर हीरो की ओर से। इस तरह हम लगातार किसी ना किसी रूप में हिंसा का पक्षपोषण करते आ रहे हैं और सेंसर मालूम नहीं क्यों कर फिल्म और मनोरंजन के बहाने संविधान और भारतीय लोकतंत्र को चुनौती दे रहे हैं, साथ ही ‘जवान’ जैसी कई पुरानी फिल्मों को भी महिमामंडित करते आई है।

अगर ऐसा कहना वामपंथी दक्षिणपंथी होना है तो लगाइए ऐसा लेबल, जिसको साउथ स्टाइल में ट्रीट किया गया है। कथानक से लेकर मैसेज तक सब कुछ, कैरेक्टर्स के लुक इत्यादी दर्शकों को ब्लैकमेल करने के लिए सिनेमैटिक टूल्स की तरह इस्तेमाल किया गया है। इस फिल्म की सबसे ज़्यादा खलने वाली चीज़ मुझे यही लगी।

'जवान' उन चीज़ों को पकड़ती है, जिसे लेकर हमारा समाज लगातार फिक्रमंद है। किसानों की आत्महत्या वाकई चौंकाने वाले हैं। बच्चों और महिलाओं की जान का खतरा इसमें गर्भवती महिलाएं की हालात और भी बदतर हैं। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक लोग। भ्रष्टाचार...।

चुनावों में ईव्हीएम और ना चाहते हुए भी अपराधियों का वोट के माध्यम से चुनकर आ जाना। जेल से लेकर जेल तक सब दिखाया गया लेकिन भारतीय जेलों की बदहाल हालतों और जेलों में बढ़ती हत्या और अपराध को यूटोपियन क्रांतिकारियों से भर दिया गया।

कफील खान को परदे के पीछे से देखते हुए गोरखपुर में इन्सेफ़ेलाइटिस बच्चों की ऑक्सीजन की कमी से मौत हमको परेशान करती है। ये सारे वे ज़रूरी मसले हैं, जिन पर बात होनी चाहिए। फर्क बस ये है कि उन मसलों पर किस नीयत से बात की जा रही है? वह न्यायसंगत रास्ता क्या हो?

क्या वाकई फिल्म या इसे बनाने वाले इन सामाजिक मसलों को लेकर फिक्रमंद हैं? अभिनय सबका अच्छा है सिर्फ शाहरूख खान ही इसके जद में क्यों आए? हां शाहरूख हर उस बहाने को खोजते नजर आते हैं जहां उन्हें खुद व मुसलमानों को आतंकवादी कहा जा रहा है और वह उनका कौम इस गलीज व्यवहार से ऊपर उठना चाहता है।

'जवान' को महिला केंद्रित फिल्म कहकर प्रमोट किया जा रहा है, सवाल यह कि पितृसत्ता को खत्म करने के लिए पुरूषों के इशारे में हथियार उठा ले? कतई नहीं? जबकि यह फिल्म भी महिला को दोयम दर्जे में रखने में सफल कहा जा सकता है। हीरोइन से लेकर ओ 6 महिला किरदार जो फिल्म के लिए अलग-अलग सब-प्लॉट्स तैयार करती है उनका किरदार सीमित कर दिया गया है।

पूरी कहानी में सिर्फ पुरूष कलाकारों का ही वर्चस्व है। सान्या मल्होत्रा से लेकर प्रियमणि अपनी फिल्मों/सीरीज़ में नायिकाओं के रोल्स करती हैं। यहां उन्हें एक फुल लेंग्थ डायलॉग तक बोलने को नहीं मिलता। नयनतारा इकलौती एक्ट्रेस हैं, जिन्हें फिल्म फुटेज देती है, वह भी महिला आरक्षण के बलबूते में।

विजय सेतुपति एकदम धांसू खलनायक बने हुए हैं। जो पहले दंगल के राउंड में हीरो को हरा देता है। दूसरे राउंड में हीरो, विलन से बदला लेने आता है। विजय सेतुपति के काली के किरदार में काली द्वारा यह कहना कि -  ‘आज़ाद और विक्रम को खत्म करो, वरना ये लोग गाना गाने लगेंगे’ और उन्हें सुनना पड़ेगा। इस मोढ़ पर फिल्म में दो सुपरस्टार्स के बीच का द्वंद्व साफ नजर आता है।

यही वजह है कि कई कार्यक्रमों में शाहरूख ने उनसे खुद को सीखना बताया है। फिल्म की समीक्षा की हद से ज़्यादा तारीफ मुझे कुल जमा पूंजी निराशाजनक लगी। अच्छा हुआ महंगे सिल्वर सक्रीन में दोस्तों ने इस फिल्म को दिखाते - देखते 150 रुपये के सामने बैठ कर 50 रुपये प्रति नग समोसा का लुफ्त नहीं उठाया लेकिन फिल्म समीक्षा को लिखने के लिये मेरे मित्रों ने मुझे कॉफी पिलाकर कुछ सोचने के लिए रवाना तो कर दिया। 

आपको मालूम हो कि हम थ्रीडी फिल्मों को देखने के लिए चश्मों का इस्तेमाल करते थे, पठान के बाद उनके इस फिल्म में तेज रफ्तार और कानफोड़ू आवाज से निपटने के लिऐ कोई विकल्प तो होना चाहिए था? खैर 80 डेसीबल से भी ज्यादा के आवाज में स्क्रीन और थियेटर गूंज रहा है, जो गैरकानूनी मालूम होता है, उस बीच गंभीरता से फिल्म को देख पाना और समझना दोनों नाकाफी हो जाता है।

मैंने दोनों कानों में अपनी ऊंगलियों का इस्तेमाल करना जरूरी समझा। ये फिल्म जितनी शाहरुख खान की है, उतनी ही एटली की भी है। एटली को एलीवेशन वाले सीन्स का मास्टर माना जाता है। आप दोनों मास्टर्स से यही कि क्या बढ़ते अव्यवस्था और अपराध के विरोध के लिये भी आप सभी के पास कोई लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद हैं।

फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक तगड़ा है। खासकर ‘जवान थीम’। मगर ‘चलेया’ के अलावा कोई भी गाना याद नहीं रहता। और मुझे थियेटर के बाहर वाकई गाना याद नहीं रहता। कुल जमा बात कि तमाम खामियों के बावजूद आप ये नहीं कह सकते कि जवान जैसी फिल्मों से आप समाज सुधार देश सुधार की अपेक्षा क्यों कर करें? आपको वो नहीं देती, जिसका वादा फिल्म ने किया था?

मनोरंजन के अलावा जवान जैसी फिल्मों ने बॉलीवुड और हॉलीवुड का सम्मिश्रण तेजी के साथ भारतीय सिनेमा घरों और लोगों के दिलों में पड़ोसने लगी है। और यह भी कि हॉलीवुड जैसे जिम्मेदराना फिल्म और गंभीरता अब भी आना बाकी है। हां फिल्म ने सरकारी आतंक और उसके खिलाफ खड़े हो रहे आतंक से परदा हटाना शुरू कर दिया है। लेकिन विकल्प देना अभी भी बाकी है।


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