पहले उर्दू को हिंदी भी कहते थे
हिंदी ज़ुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला बन गयी
पंकज मिश्राउर्दू व हिंदी बुनियादी रूप से एक ही थी इसलिए अक्सर भ्रम की स्थिति बनी रही. यहां तक कि फिल्मों में भी देखिये तो शुरूआती दशकों में हिंदी फिल्में दरअसल उर्दू फिल्में भी थीं. इन फिल्मों में संवाद की भाषा कैसी होती थी, सब को पता है.

उर्दू हिंदी एक ही है. उर्दू/हिंदी का वजूद प्राकृत, संस्कृत, ब्रज, दूसरी देसी बोलियों और अरबी, फ़ारसी, तुर्की वग़ैरह के मेल से हुआ है. पहले उर्दू को हिंदी भी कहते थे.
दरअसल आज जिसको हिंदी कहते हैं और देवनागरी में लिखी जाती है उसका उदय सौ सवा सौ साल पहले ही हुआ. उर्दू को पहले हिंदवी, हिंदी, जुबान-ए-हिन्द, हिंदवीयत, देहलवी वग़ैरह नाम से जानते थे. उर्दू नाम बाद में पड़ा. और ये जो हिंदी, हिंदवी थी इसको लिखते फ़ारसी लिपि में थे.
मुग़लों से काफ़ी पहले सुल्तानों के दौर में ही हिंदी/हिन्दवी को लिंग्वा फ्रैंका की हैसियत हासिल हो गयी थी लेकिन लिखने पढ़ने की भाषा फ़ारसी ही थी. ठीक उसी तरह जैसे इंग्लिस्तान में लोग बोलते अंग्रेज़ी थे लेकिन पढ़ने लिखने का काम लैटिन या फ्रेंच में होता था. (अंग्रेजी तो केम्ब्रिज में पढ़ाई भी नहीं जाती थी.
फ्रान्सिस बेकन को तो लगता था कि अंग्रेज़ी का कोई भविष्य नहीं है. दुनिया में अंग्रेजी का पहला प्रोफेसर भारत में नियुक्त किया गया.). हिंदी (यानी आज की उर्दू) में पहला साहित्य वली दकनी और क़ुली क़ुतुब शाह से काफ़ी पहले लाहौर के मसऊद साद सलमान (1046'121) के यहां मिलता है जिसका ज़िक्र अमीर खुसरो ने किया है.
अमीर खुसरो ने तुहफतुस सिग्र और वसतुल हयात के बाद जब अपना तीसरा दीवान ग़ुर्रतुल कमाल मुकम्मल किया तो उसके दीबाचे (प्रस्तावना) में लिखते हैं कि मुझ से पहले तीन दीवानों वाले शायर हज़रत मसऊद लाहौरी हैं लेकिन उनका एक दीवान अरबी कलाम का, एक फ़ारसी और एक हिंदवी का है जब कि मेरा तीनों फ़ारसी कलाम है.
देखिये हिंदवी कहा जिसे बाद में उर्दू कहा गया. भाषा के सन्दर्भ में हिंदी हिंदवी से ही आया प्रतीत होता होता है. हिंदी का चलन काफ़ी पहले से है, भाषा हिंदी/हिंदवी थी और लिपि फ़ारसी। नागरी में लिखी जाने वाली हिंदी नाम की कोई भाषा नहीं थी.
मुग़ल काल में शाहजहाँ के दौर में इसको उर्दू भी कहने लगे. उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका वास्तविक अर्थ होता है क़िला। चूंकि क़िले में फौजें भी रहती थीं इसलिए छावनी और लश्कर का भाव भी लिया जाता है.
लेकिन भाषा के नामकरण से इस भाव का कोई सम्बन्ध नहीं है. लश्कर का अर्थ लेकर इस सम्बन्ध में ग़लत नतीजा निकाला गया. ये बात कि उर्दू लश्करी ज़ुबान है और फौजी छावनियों में परवान चढ़ी, दरअसल अंग्रेज़ों की छत्रछाया में फ़ोर्ट विलियम कालेज की उड़ाई हुई है.
अंग्रेज़ बहादुर ने जो कहा उसको फ़ौरन करेंसी हासिल हो गयी. लेकिन विद्वानों की प्रस्थापना इस से अलग है. एलीट की बोली का भाषा के मानक रूप पर काफ़ी प्रभाव होता है. लाल क़िले और शाहजहानाबाद में बोली जाने वाली उर्दू मानक रूप लेने लगी और दिल्ली और आसपास वाले हिंदी/हिंदवी/देहलवी/जुबां-ए-हिन्द को ज़ुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला कहने लगे यानी क़िला साहेब की ज़ुबान।
फिर धीरे धीरे उर्दू-ए-मुअल्ला और फिर सिर्फ़ उर्दू। अगर उर्दू के माने लश्कर लिया जाए तो ज़ुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला का कोई मतलब नहीं रह जाता। इंग्लिस्तान में भी अंग्रेजी को क्वीन्ज़ इंग्लिश कहा गया क्योंकि राजधानी लंदन जहां रानी रहती थीं वहाँ की बोली को मानक रूप स्वीकारा गया. हिंदी ज़ुबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला बन गयी लेकिन उसको हिंदी और हिन्दुस्तानी भी कहा जाता रहा.
मौलाना अबुलकलाम आज़ाद के पिता मौलाना ख़ैरुद्दीन ने एक किताब सूफ़ी मत पर लिखी तो दीबाचे में कहते हैं कि मैं ने ये किताब हिंदी में लिख दी जिस से आम लोग भी फ़ायदा उठा सकें. याद रहे कि किताब फ़ारसी लिपि में थी. अभी तक उर्दू/हिंदी/हिन्दुस्तानी बोली तो खूब जाती थी लेकिन लिखना अक्सर फ़ारसी में हो रहा था और धीरे धीरे लेखकगण समय काल के अनुरूप स्वयं को बदल रहे थे, इसी लिए विशेष उल्लेख किया कि मैं ने फ़ारसी में न लिख कर हिंदी में लिखा.
देखिये साहब ये वही हिंदी है जिसे अब हम सिर्फ उर्दू कहते हैं, हिंदी नहीं कहते। हिंदी किसी और का नाम हो गया. जिसको आज हिंदी कहते हैं, इसका सम्बन्ध भाषा से कम लिपि से अधिक रहा. उन्नीसवीं सदी में हिंदी (यानी उर्दू) को देवनागरी में लिखने का आंदोलन चला, जिसके परिणाम स्वरुप 1893 में बनारस में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई.
नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी प्रचारिणी सभा नहीं। साफ़ है यह लिपि का आंदोलन अधिक था. हिंदी ज़ुबान तो पहले से ही चलन में आ चुकी थी, जो फ़ारसी लिपि में लिखी जाती थी और जिसे उर्दू भी कहते थे. नागरी आंदोलन से जुड़े कई लोग पहले फ़ारसी लिपि में ही उर्दू ग़ज़लें लिखते थे.
अब हिंदी (उर्दू) नागरी में भी लिखी जाने लगी. जो नागरी में लिखी गयी वो हिंदी हो गयी और फ़ारसी लिपि में लिखी जाती रही वो उर्दू रह गयी. हालांकि स्वतंत्रता से पहले अक्सर इन दोनों के लिए हिन्दुस्तानी शब्द का इस्तेमाल देखने को मिलता है.
मतलब था भाषा हिन्दुस्तानी है जिसको दो लिपियों में लिखा जाता है, जैसे सिंधी भाषा अरबी व सिंधी लिपियों में, तुर्की भाषा अरबी व रोमन लिपियों में, कश्मीरी भाषा तीन यानी फ़ारसी, नागरी व शारदा लिपियों में, पंजाबी भाषा फ़ारसी (शाहमुखी) व गुरमुखी लिपियों में.
ऐसा शायद उर्दू/हिंदी में ही हुआ कि लिपियों के अंतर से एक ही भाषा दो हो गयी. फिर हिंदी वाले फ़ारसी की जगह संस्कृत के शब्द ज़्यादा इस्तेमाल करने लगे और उर्दू वाले अरबी फ़ारसी के.
नागरी में लिखा गया ब्रजभाषा, अवधी आदि का साहित्य हिंदी के खाते में गिना जाने लगा. शायद कई ऐसे ग्रन्थ भी हिंदी साहित्य का हिस्सा बन गए जो मूल रूप से फ़ारसी लिपि में लिखे गए.
पद्मावत व अखरावट जो हिंदी साहित्य में आज क्लासिक्स में गिनी जाती है और तमाम हिंदी विभागों में पाठ्यक्रम में शामिल है, उसका सब से पुराना हस्तलिखित प्रति जो इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन में रखा है वो फ़ारसी लिपि में है.
चूंकि उर्दू व हिंदी बुनियादी रूप से एक ही थी इसलिए अक्सर भ्रम की स्थिति बनी रही. यहां तक कि फिल्मों में भी देखिये तो शुरूआती दशकों में हिंदी फिल्में दरअसल उर्दू फिल्में भी थीं. इन फिल्मों में संवाद की भाषा कैसी होती थी, सब को पता है.
कहानी और गाने लिखे भी फ़ारसी लिपि में जाते थे. यहां तक कि अगर फिल्म में कोई लिखी हुई बात दिखाई जाती, चिट्ठी पत्री आदि तो वो भी नागरी में नहीं बल्कि फ़ारसी में होती थी. मैं ने देवदास में पारो का लिखा खत देखा जिसको फिल्म के नायक देवदास के रूप में के. एल. सहगल पढ़ते हुए दिखायी देते हैं.
Add Comment