कृष्ण को कैसे देखें?
हमें कृष्ण पर बुद्ध और क्राइस्ट दोनों के तत्व मिलते हैं
प्रेमकुमार मणिकृष्ण बतलाते हैं, दुनिया को खंड - खंड में मत देखो, सातत्य में देखो, नैरंतर्य में देखों, प्रवाह में देखो, जहाँ प्रवाहमयता है, वहां स्थिरता नहीं है, और जहाँ स्थिरता नहीं है वहां द्वंद्वात्मकता है। कुछ भी स्थिर नहीं है यहां; न नाम न रूप। हर क्षण विनाश और सृष्टि। विनाश और सृष्टि साथ - साथ। यही है जीवन और जगत की चयापचयता - मेटाबोलिज्म - यही प्रतीत्यसमुत्पाद है और जरा सा ही भिन्न रूप में वेदांत भी।

कृष्ण के जन्मदिन को अष्टमी,जन्माष्टमी या कृष्णाष्टमी कहा जाता है। यह भाद्र मास के कृष्णपक्ष की आठवीं तारीख होती है। ध्यान दीजिए, भाद्र और कृष्ण पक्ष। हिन्दू मानस इसे पवित्र और मांगलिक नहीं मानता। राम का जन्म दिन नौमी होता है - चैत शुक्लपक्ष की नौवीं तारीख। सब कुछ मांगलिक। कृष्ण ने अपने लिए शुक्ल नहीं, कृष्णपक्ष चुना। कुछ रहस्य की प्रतीति होती है।
रहस्य इसलिए कि कृष्ण इतिहास पुरुष नहीं, पुराण -पुरुष हैं। जैसे राम या परशुराम। इतिहास पुरुषों का जन्म संयोग होता है। पुराण - पुरुषों का जन्म तय- शुदा होता है। वे अवतार लेते हैं, जन्म नहीं। उनका अपना सब कुछ चुनना पड़ता है। जन्म की तारीख से लेकर कुल, कुक्षि सब। सबके कुछ मतलब होते हैं। जैसे किसी कथा या उपन्यास में दर्ज़ हर पात्र या घटना के कुछ मतलब होते हैं। कृष्ण ने यदि यह कृष्ण पक्ष और भाद्र जैसा अपावन मास चुना है, तब इसके मतलब हैं।
हिन्दू पौराणिकता ने जो युग निर्धारित किये हैं, उसमे राम पहले आते हैं। कृष्ण बाद में। राम का युग त्रेता है, कृष्ण का द्वापर। दोनों के व्यक्तित्व और युग चेतना को लेकर दो खूबसूरत और वृहद् काव्य ग्रन्थ लिखे गए हैं। रामायण और महाभारत। इन कथाओं को लेकर भारतीय वांग्मय में हज़ारों काव्य व कथाएं लिखी गयी हैं। आश्चर्य है कि तीसरा पौराणिक पुरुष परशुराम रामायण और महाभारत दोनों में है। यही तो पौराणिकता और कल्पनाशीलता का जादू है।
राम को हमारे यहाँ पूर्णावतार नहीं माना गया। कृष्ण पूर्णावतार हैं। हिन्दू पौराणिकता की यह विकासवादी पद्धति मुझे पसंद है। जो भी बाद में होता है वह अपेक्षया अधिक पूर्ण होता है। हालांकि हिन्दू चिंतन ही अनेक मामलों में इसका खंडन भी करता है। युग व्यवस्था में सतयुग पहले आता है और वह पूर्ण है; कलयुग सबसे आखिर में, और वह अपूर्ण व दोषित है। इसका रहस्य आज तक मुझे समझ में नहीं आया।
कृष्ण को लेकर कई तरह की रूप - छवियां मेरे मन में बनती रही हैं। उनका जीवन चरित जितना मनोरम और चित्ताकर्षक है, उतना संभवतः किसी अन्य का नहीं। अंधियारे अपावन भादो में कारागार में जन्म, हज़ार कठिनाइयों के साथ उनका गोकुल पहुंचना, बचपन से ही संकट पर संकट; लाख तरह के टोने, जाने कितनी पूतनाएँ - कितने शत्रु - और सबसे जूझते गोपाल कृष्ण श्रीकृष्ण बनते हैं। कोई योगी कहता है, कोई भोगी। कोई शांति का परम पुजारी कहता है, कोई महाभारत जैसे संग्राम का सूत्रधार। कोई मर्यादा का परम रक्षक मानता है, कोई परम भंजक।
इतने अंतर्विरोधी ध्रुवों से मंडित है श्रीकृष्ण का चरित्र। सब मिला कर एक द्वंद्वात्मक चरित्र है कृष्ण का; गतिशील, लेकिन लय- हीन नहीं। इसीलिए कृष्ण का चरित्र रचनात्मक है, सम्यक है और यही रचनात्मकता उन्हें पूर्णता प्रदान करती है। उनके इसी चरित्र को लेकर तमाम हिन्दू ग्रंथों ने उन्हें प्रभु या ईश्वर का पूर्णावतार माना है। इसी पूर्णता पर रीझ कर हिन्दू जन - मानस उन्हें ईश्वर कहता है, अपना सब कुछ।
श्रीकृष्ण के अनेक रूप हैं और इनकी विविधता को लेकर अनेक लोग भ्रमित हो जाते हैं कि क्या ये सभी कृष्ण एक ही कृष्ण के विकास हैं या फिर अलग - अलग हैं। कई लोगों ने कई कृष्णों की बात की है। वे लोग गोपाल कृष्ण, देवकीपुत्र कृष्ण, योगेश्वर कृष्ण और गीता के कृष्ण को अलग-अलग मानते हैं। सचमुच इन चरित्रों की जो विविधताएं हैं वह किसी को भी चक्कर में डाल सकती हैं। कोई कैसे विश्वास करे कि गौवों के साथ सुबह से शाम तक वन -वन घूमने वाला, बासी रोटी खाने वाला, मक्खन चुराने वाला, हज़ार - हज़ार शरारतें करने वाला कृष्ण वही कृष्ण है, जिस पर जमाने की सारी कुमारियाँ रीझी हुई हैं।
जो कृष्ण वृंदा और राधा के प्रेम में आपादमस्तक डूबा हुआ है, वही कृष्ण छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार ऋषि सांदीपनि के आश्रम में कठिन त्याग -तपस्या के द्वारा शास्त्रों के अध्ययन में भी तल्लीन है। जो कृष्ण अनेकों बार युद्ध से भाग खड़ा हुआ है, वही अपने युग के सबसे बड़े संग्राम का निदेशक और विजेता है। वीर जिसकी प्रभुवत वंदना करते हैं, वही कृष्ण उस महासमर में भृत्यवत सारथी -ड्राइवर - बन जाता है। देवता तक जिसकी कृपा के आकांक्षी हैं, वह कृष्ण युधिष्ठिर के यज्ञ में लोगों के पाँव पखारते और जूठी पत्तल उठाते दिखते हैं।
कृष्ण के जीवन की यह विविधता हमें हैरत में डाल देती है। वह हमारे कानों में फुसफुसाते स्वर में कहते हैं - महान बनने केलिए सामान्य बनना पड़ता है मित्र! मैं अपनी सृष्टि का सेवक भी हूँ और नायक भी। यज्ञ का जूठन भी उठाता हूँ और पौरोहित्य भी करता हूँ।
इतिहास और समाजशास्त्र के विद्वानों को भी कृष्ण का जीवन आकर्षित करता है। ईसापूर्व चौथी सदी में, यूनानियों ने जब भारत पर आक्रमण किया तब उन्होंने देखा कि पंजाब के मैदानी इलाके में हेराक्लीज से मिलते -जुलते एक नर - देवता की पूजा का प्रचलन है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी. डी. कोसंबी कहते हैं कि वह कृष्ण ही हैं।
यूनानियों ने अपने जिस देवता हेराक्लीज से कृष्ण की तुलना की थी, उसके जीवन और कृष्ण के जीवन में थोड़ा - सा ही सही, लेकिन सचमुच का साम्य है। हेराक्लीज एक योद्धा है, जो कड़ी धूप में तपकर सांवला हो गया है। हेराक्लीज ने भी कालिय नाग से मिलते - जुलते एक बहुमुखी जल- सर्प, जिसे हाइड्रा कहा जाता है, का वध किया था। उसने भी अनेक अप्सराओं -रमणियों से विवाह किया था।
कोसंबी के अनुसार पंजाब की किसान जातियों को अपनी जरूरत के अनुसार एक देवता चाहिए था। कृष्ण का चरित्र किसानो की जरूरत के अनुकूल था। कृष्ण गौतम बुद्ध की तरह यज्ञों का सीधे विरोध नहीं करते, लेकिन किसी ऐसे यज्ञ में कृष्ण की स्तुति नहीं की जाती, जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है। वैदिक देवता इंद्र के विरुद्ध कृष्ण खुल कर खड़े हो जाते हैं। तमाम गोकुलों के कम्यूनों में उन्होंने इंद्र की पूजा बंद करवा दी थी और इसकी जगह प्रतीक - स्वरूप पहाड़ (गोबर्धन) की पूजा की शुरुआत की, जिस पर गोपालकों की गायें चरती थीं।
उनके भाई बलराम तो हल को उसी रूप में लिए होते थे, जिस रूप में हमारे ज़माने के जवाहरलाल जी गुलाब का फूल। किसानों को ऐसे ही नायक की जरुरत थी। गोपालक और हलधर। कृष्ण - बलराम। अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'पुनर्नवा' में हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने लोरिक - चंदा की लोक कथा को जो औपन्यासिक रूप दिया है। उस से भी यही संकेत मिलता है।
कन्नड़ लेखक भैरप्पा ने महाभारत - कथा को अभिनव कथा का रूप दिया है, अपने उपन्यास 'पर्व ' में। इस उपन्यास का कृष्ण जननायक है। वह युद्ध के मैदान में कुलीनता की शेखी और वर्णसंकरता की चिंता बघार रहे अर्जुन से कहता है - " ...युद्ध में पुरुष मरते हैं। स्त्रियां आश्रयहीन हो जाती हैं। बाद में स्त्रियां परपुरुषों के हाथ पड़ जाती हैं, बलात्कार से या अपनी इच्छा से। जो भी हो, यह सब होता ही है। पर तुम यह सब क्यों सोचते हो कि केवल क्षत्रिय स्त्रियों के साथ यह सब होने से ही अनर्थ होता है ? ...आर्य स्त्रियों केलिए तो पवित्रता चाहिए, दूसरी स्त्रियों केलिए क्यों नहीं?
क्या तुम्हार पड़दादी आर्य थी? भीष्म की माता गंगा क्या आर्य थी ? तुमने उलूपी के साथ विवाह कर के एक वर्ष तक गृहस्थ जीवन बिताया, क्या वह आर्य थी? क्या पहले कभी हमारे - तुम्हारे वंश में आर्येतर लोग आकर नहीं मिले ? तुम जिसे बहू बना कर लाये हो, उस उत्तरा की माँ सुदेष्णा आर्य होने पर भी सूत कुल की नहीं है क्या? यदि पवित्रता जैसी कोई चीज है तो वह उनके पास भी है और हमारी स्त्रियों के पास भी। इस प्रकार के भेद भाव करना अहंकार की बात होगी।"
कृष्ण आगे कहते हैं--- " भीष्म ,द्रोण की बात लो। दुर्योधन का कहना है कि तुमलोग पाण्डुपुत्र नहीं हो। वे लोग उसकी ओर मिल चुके हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे लोग भी उसी की बात मानते हैं। यदि तुमलोग यह मानते हो कि वे बड़े धर्मात्मा हैं तो यह अर्थ निकला कि तुम लोग व्यभिचार से जन्मे हो। क्या तुम यह मानते हो कि तुम व्यभिचार की संतान हो ?. .. "
कृष्ण ने अर्जुन की सवर्ण - कुलीन मानसिकता की धज्जियाँ उड़ा दी। और इस मनोविकार के दूर होने पर ही उसे दिव्यज्ञान की प्राप्ति होती है। युद्ध करो, लेकिन धर्म केलिए; अधर्म केलिए युद्ध कभी मत करो। यही क्षात्रधर्म है और मानव - धर्म भी।
कृष्ण का एक दार्शनिक रूप भी है। कुछ लोगों केलिए तो वह भारतीय दर्शन के पर्याय बन चुके हैं। गीता को पर्याप्त संशोधित कर उसे और कृष्ण - चरित्र को वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुकूल बनाने की कोशिश की गयी है। लेकिन कृष्ण का जो क्रांतिधर्मी चरित्र किसान - दस्तकार जनता ने बनाया, इस देश के नारी समाज ने बनाया, वह अत्यंत उदार है।
उनका मुकाबला बस एक ही व्यक्ति से है, वह है बुद्ध। लेकिन दोनों में भेद नहीं, अन्तर्सम्बन्ध दिखते हैं। यूरोपीय लेखक रेनन ने अपनी किताब 'लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट ' में लिखा है -' क्राइस्ट शब्द में कुछ बौद्ध जरूर है। ' वह क्राइस्ट पर बुद्ध की छाया देखते हैं। हमे कृष्ण पर बुद्ध और क्राइस्ट दोनों के तत्व मिलते हैं। प्रेम, करुणा और प्रज्ञा से ओत-प्रोत है कृष्ण का चरित्र।
बुद्ध और कृष्ण दोनों हमे भयमुक्त होने की शिक्षा देते हैं। मृत्यु का भय हमेशा लोगों के मन को मथता रहा है। बुद्ध और कृष्ण के जमाने से लेकर आज ज्यां पाल सार्त्र और अल्बेर कामू के जमाने तक। सभी देशों के दर्शन और साहित्य पर इस भय की परछाई डोलती दिखती है। गीता का अर्जुन भयग्रस्त है।
कृष्ण बतलाते हैं, दुनिया को खंड -खंड में मत देखो, सातत्य में देखो, नैरंतर्य में देखों, प्रवाह में देखो, जहाँ प्रवाहमयता है, वहां स्थिरता नहीं है, और जहाँ स्थिरता नहीं है वहां द्वंद्वात्मकता है। कुछ भी स्थिर नहीं है यहां; न नाम न रूप। हर क्षण विनाश और सृष्टि। विनाश और सृष्टि साथ - साथ। यही है जीवन और जगत की चयापचयता - मेटाबोलिज्म - यही प्रतीत्यसमुत्पाद है और जरा सा ही भिन्न रूप में वेदांत भी।
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