करीब सात करोड़ बच्चे उन बीमारियों से मारे जाते हैं जिनका इलाज संभव

हारवर्ड एजूकेशनल रिव्यूज - 1995

सुशान्त कुमार

 

विश्व के प्रख्यात भाषा विज्ञानी नोम चोमस्की ने ‘हारवर्ड एजूकेशनल रिव्यूज'995‘ के हिंसा और नवयुवक विशेषांक में बहुत कुछ कहा है। चोमस्की ने यूनिसेफ से प्रकाशित अर्थशास्त्री एसए ह्यूलेट की किताब धनी समाज में बच्चों की उपेक्षा का उल्लेख किया है। बच्चे गोली चलाते हैं तो आश्चर्य होता है, बच्चों पर गोलियां चलती हैं तो और आश्चर्य होता है।

भारत के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट ने सबको चौंकाया है। बच्चों के विरूद्ध अपराधों की संख्या भी चिंताजनक है। भारत में हर साल लगभग 1 लाख बच्चे गुम हो जाते है। एनसीआरबी के मुताबिक 2014 में दिल्ली में हर रोज 21 बच्चे गुम हो रहे थे, लेकिन 2015 में यह बढक़र 22 हो गई। मध्यप्रदेश में हर रोज 23 बच्चे गुम हो जाते है। वहीं राजस्थान में मामूली सुधार दर्ज किया गया है।

छत्तीसगढ़ में गुम होने की तुलना में बच्चों की रिकवरी की स्थिति ज्यादा खराब है। बच्चों की एक बड़ी तादाद नशे के लत में शामिल होना है। स्टेशनों में बेसहारा बच्चों से लेकर घरों में मां-बाप के प्यार व छूट के कारण बच्चे नशे के करीब आ रहे हैं। इसी तरह पढ़ाई के बोझ के कारण बच्चे घरों से भाग रहे हैं और बंधुआ मजदूर के साथ होमोसैक्स के चंगूल में समा रहे हैं।

घरेलू शारीरिक शोषण में बच्चों के करीबी ही उनका दैहिक शोषण कर रहे हैं। यूनिसेफ की ओर से एक रिपोर्ट जारी की गई जिसमें पिछले वर्ष 2014 को बच्चों के लिए सबसे पीड़ादायक वर्ष के रूप में याद किया गया है। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि पिछला वर्ष बच्चों के विरुद्ध हिंसा और अतिवाद का साक्षी रहा है।

अभी हाल ही में उत्तर पूर्वी नाइजेरिया में आतंकवादी संगठन बोकोहराम ने 100 से अधिक महिलाओं और बच्चों का अपहरण कर लिया और 25 स्थानीय लोगों की हत्या कर दी। दूसरा आतंकवादी हमला अभी हाल ही में पाकिस्तान के पेशावर नगर में एक आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुआ था जिसमें 132 से अधिक स्कूली बच्चे मारे गए।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने इस आतंकवादी हमले की भर्त्सना करते हुए कहा कि इस पाश्विक हमले ने समस्त विश्ववासियों को दुःखी कर दिया। इस हमले के कुछ घंटे बाद यमन की राजधानी सना में एक स्कूली बस में 15 छात्राएं सवार थीं और उसके समीप कार बम का एक धमाका हुआ जिससे उसमें आग लग गई और बस में सवार समस्त छात्राएं मारी गई। यूनिसेफ ने इस घटना के बाद वर्ष 2014 के अंतिम सप्ताह के काले दिवस का नाम दिया।

वर्ष 2014 में अफ्रीकी देशों में भी बच्चों के विरुद्ध अधिकांश युद्ध जातीय और धार्मिक थे। केन्द्रीय अफ्रीक़ा और दक्षिणी सूडान में हृदय विदारक अपराध हुए जिनसे बच्चे भी सुरक्षित नहीं रहे और सबसे अधिक हानि बच्चों को पहुंची। युद्ध और अकाल के कारण दक्षिणी सूडान में 50 हज़ार बच्चों की जान खतरे में पड़ गई है।

दक्षिणी सूडान में यूनिसेफ के प्रतिनिधि जानथन वेच कहते हैं कि चिंताजनक विषय है कि विषम स्थिति आने वाली है और युद्ध जारी रहने की स्थिति में हम उस कुपोषण के साक्षी होंगे जिसका अभी तक अनुभव नहीं किया है। अगर हम बच्चों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सके तो दक्षिणी सूडान में 5 साल से कम के दसियों हज़ार बच्चे हताहत हो जाएंगे।

यूरोप में लगभग 22 प्रतिशत बच्चों को विभिन्न प्रकार के यौन शोषण का सामना करते हैं और साथ ही उनके यौन शोषण में वृद्धि हो रही है तथा यह यूरोप में एक चिंताजनक विषय में परिवर्तित हो रहा है। इस हिंसा से मुकाबला भी बहुत जटिल होता जा रहा है। बहुत से बच्चे अपने विरुद्ध होने वाली हिंसा को बताने से शर्म करते और डरते हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट के आधार पर पूरे विश्व में लाखों बच्चों को यौन शोषण, हिंसा और हत्या का सामना करते हैं।

अध्ययनों से पता चलता है कि बच्चों के विरुद्ध जो हिंसा होती है और उनका यौन शोषण किया जाता है उसके कुप्रभाव बड़े होने पर भी दिखाई देते हैं। हत्या एक अन्य चीज़ है जो कुछ देशों में बच्चों के लिए खतरा बनी हुई है। केवल वर्ष 2012 में 95 हज़ार बच्चों की हत्या कर दी गई हैं। बड़ी संख्या में बच्चों की हत्याएं पश्चिमी देशों में की जाती है। यद्यपि बच्चों की सबसे अधिक हत्या उन देशों में होती है जहां लोगों की आमदनी औसत या उससे कम है परंतु 34 विकसित देशों के मध्य सबसे अधिक बच्चों की हत्या अमेरिका में हुई है।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार ग्वाटेमाला, ब्राज़ील, एलसल्वाडोर, वेनेज़ोएला और पनामा सहित लैटिन अमेरिकी एवं केन्द्रीय एशिया में 10 से 19 वर्ष के नौजवानों की मृत्यु का महत्वपूर्ण कारण हत्या रही है। बच्चों की हत्या की संख्या की दृष्टि से ब्राज़ील दूसरा देश था। वर्ष 2011 में दो लाख 74 हज़ार बच्चे लगभग 30 विभिन्न अपराधी गुटों में शामिल हो गए। यूनिसेफ ने विकसित देशों में बच्चों की निर्धनता के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें अमेरिका दूसरा देश है जहां बच्चे अपेक्षाकृत निर्धनता के शिकार हैं।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार 35 देशों में लगभग तीन करोड़ बच्चों को अपेक्षाकृत निर्धनता का सामना है। इन देशों में अमेरिका दूसरा देश है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार 23 दशमलव एक प्रतिशत अमेरिकी बच्चे अपेक्षाकृत निर्धनता का जीवन गुज़ार रहे हैं। अपेक्षाकृत निर्धनता का कारण आधार भूत आवश्यकताओं के स्रोत का न होना नहीं है ।

आज विज्ञान व तकनीक में दिन प्रतिदिन विकास हो रहा है परंतु शांति व आराम के अतिरिक्त दिन प्रतिदिन हम अबोध बालकों के विरुद्ध नाना प्रकार की हिंसा के साक्षी हैं। पश्चिमी देश न केवल बच्चों के अधिकारों के समर्थन में कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैं बल्कि जायोनी शासन और तकफीरी गुटों को लैस करके बच्चों सहित इंसानों की जान व सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं।

दुनिया के बच्चों के हाल पर यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट उन भयावह स्थितियों के नतीजों के रूप में उभरे कुछ आंकड़ों को पेश करती है जो सदी दर सदी इस दुनिया पर काबिज हैं। ये स्थितियां हैं बच्चों की अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और शोषण की जो बद से बदतर हुई जाती हैं।

यूनिसेफ के मुताबिक 2030 तक पांच साल तक के दुनिया के करीब सात करोड़ बच्चे ऐसी बीमारियों से मारे जा सकते हैं जिनका इलाज संभव है। करीब 17 करोड़ बच्चे गरीबी की चपेट में आकर दम तोड़ सकते हैं और 75 करोड़ बच्चियां को शादी के नाम पर एक नरक में होम किया जा सकता है।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के हवाले से अगर भारत के हाल पर नजर डालें तो यहां के हालात भी कम डराने वाले नहीं। नारों, वादों, नीतियों, कार्यक्रमों और अभियानों के लंबे और कमोबेश अंतहीन सिलसिले के बाद अब ये देश ऐसे मुकाम पर है जहां आए दिन मन की बात होती है लेकिन आर्थिकी के सूरतेहाल जबकि बिगड़े ही हैं।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत भी उन पांच देशों में शामिल है जहां 2015 में हुई करीब छह करोड़ बाल मौतों में से आधी मौतें हुई हैं। अन्य देश हैं- डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो, इथियोपिया, नाइजीरिया और पाकिस्तान। लेकिन ये देश अर्थव्यवस्था और ताकत के मामले में भारत के नजदीक नहीं ठहरते हैं।

फिर भी बीमारियों से होने वाली मौतों में भारत इनके बराबर आ खड़ा हुआ है। आज भारत जिस विकास का मुकुट सजाए बैठा है उसके पीछे करोड़ों चीखें दबी हुई हैं. गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, हिंसा और शोषण से घिरे वंचित समाज की चीखें।

भारत का मौजूदा कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों को 18 तरह के जोखिम वाले काम करने से रोकता है पर अब 18 साल तक के बच्चे भी इस तरह के काम नहीं कर पाएंगे। लेकिन घर पर चल रहे काम खतरनाक हैं या नहीं, इसे कौन तय करेगा? एक और आंकड़ा देखिए भारत में समय से पूर्व प्रसव और प्रसव काल से जुड़ी जटिलताएं बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह बताई गई हैं।

इनकी दर है 39 फीसदी न्यूमोनिया से करीब 15 फीसदी बच्चे, डायरिया से करीब 10 फीसदी और सेप्सिस से करीब आठ फीसदी बच्चे अकाल मृत्यु के शिकार बनते हैं. यूं भारत में पांच साल से कम बच्चों में मृत्यु दर में गिरावट आई है।

1990 में प्रति हजार जन्मे बच्चों में ये संख्या 126 की थी और अब ये घटकर 48 रह गई है. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में 2015 में ढाई करोड़ बच्चे पैदा हुए। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में भारत की स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बाद सबसे बुरी हैं। नेपाल और बांग्लादेश में पांच से कम की आयु में इन तीनों देशों से कम मृत्यु दर है।

उचित पोषण, टीकाकरण, संक्रमणों से बचाव, पीने का साफ पानी, ये सब चीजें ऐसी है जो बच्चों को मौत से बचा सकती है। अगर लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया जाए तो दक्षिण एशिया में बच्चों की मृत्यु के मामलों में भारी कमी आ सकती है। जाहिर है शिक्षा भी एक बहुत बड़ा कारण है।

चिंता की बात यह है कि साल दर साल इस तरह की रिपोर्टें आती रहती हैं लेकिन न तो राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों और न ही सरकारों के एक्शन प्लान में बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा का मुद्दा शामिल हो पाता है। ये एक पुरानी समस्या है और आधुनिक परिवेश में इसे नए सिरे से देखे जाने की जरूरत है।

हर साल 12 जून को बाल श्रम विरोधी अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन दुनिया भर में अब भी करीब 17 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं। 1999 में विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) के सदस्य देशों ने एक संधि कर शपथ ली कि 18 साल के कम उम्र के बच्चों को मजदूर और यौनकर्मी नहीं बनने दिया जाएगा। लेकिन उनका दैहिक शोषण हो रहा है


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